पॉप्सिकल का आविष्कार : ठंडी मिठास की शुरुआत और 80-90 के दशक की नॉस्टैल्जिक यादें

यह उन दिनों की बात है!!

वे भी क्या दिन थे, जब 25-50 पैसे में पॉप्सिकल मिल जाया करती थी। हर गली-मोहल्ले में बच्चों का हुजूम लग जाता था, जब ठेले वाला आईस्क्रीम बेचने आता । उस समय हर घर में फ्रि़ज नहीं होता था और जिसके घर फ्रि़ज होता, उसे बहुत भाग्यशाली माना जाता था। गर्मियों में, प्लास्टिक की ट्यूबनुमा थैली में रसना का पानी भरकर आईसपॉप्स बनाकर बेचना एक आम बात थी। कहीं-कहीं रिमोट गांवों में गेहूं और आलू देकर उसके बदले में पॉप्सिकल ख़रीदे जाते थे। आज भी उम्र के इस पड़ाव पर पॉप्सिकल देखकर उसे खाने के लिए मन ललचा ही जाता है। पर कभी यह सोचा है कि आखि़र इस पॉप्सिकल का आविष्कार कैसे हुआ? आज आईस्क्रीम टाईम्स आपके लिए इतिहास के पन्नों से यही कहानी लेकर आया है।

संयोगवश शुरुआत

पॉप्सिकल, जो आज भी बच्चों और बड़ों के दिलों में बसी है, की शुरुआत एक साधारण और संयोगवश हुई थी। जैसे कि शेफ़ रणवीर ब्रार ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि “accidentally बनी हुई खाने की चीजें ही इतिहास बनाती हैं,” वैसे ही पॉप्सिकल का जन्म भी हुआ। यह कहानी 1905 की है, जब कैलिफ़ोर्निया के ओकलैंड में 11 वर्षीय फ्रै़ंक एपर्सन ने एक दिन खेलते-खेलते अपना स्वीट सोडा का मिश्रण बरामदे में भूल गया। रात भर ठंड के कारण वह मिश्रण जम गया और अगली सुबह फ्ऱैंक ने देखा कि वह एक जमी हुई बर्फ़ की छड़ी बन गई है। जब फ्ऱैंक ने उसे चखा, तो वह पहली चुस्की में ही उसके स्वाद का दीवाना हो गया।

एक बच्चे का आविष्कार बड़ा हुआ

कई सालों तक, फ्रैंक ने अपने दोस्तों के साथ इस जमी हुई ट्रीट का आनंद लिया, जिसे वे “एप्सिकल्स” कहते थे। 1923 में, लगभग दो दशक बाद, एपर्सन ने अपने इस बचपन के आविष्कार को दुनिया के सामने लाने का फ़ैसला किया। उन्होंने पेटेंट के लिए आवेदन किया और बड़े पैमाने पर इसका उत्पादन शुरू किया। अपने आविष्कार को और भी आकर्षक बनाने के लिए, एपर्सन ने इसका नाम “पॉप्सिकल” रखा, जो ष्पॉपष् (सोडा के लिए एक सामान्य शब्द) और “आईसिकल” का मिश्रण था।

पॉप्सिकल का उदय

पॉप्सिकल जल्दी ही बच्चों के बीच लोकप्रिय हो गया। इसकी सादगी और छड़ी पर जमी हुई बर्फ़ खाने का अनोखा तरीक़ा इसे ख़ास बनाता था। मार्केटिंग के चतुर तरीक़ों और विभिन्न फ़्लेवरों ने इसकी लोकप्रियता को और भी बढ़ाया। एपर्सन का आविष्कार गर्मियों का एक अभिन्न हिस्सा बन गया, जो बच्चों को ताज़गी और आनंद प्रदान करता था।

1925 में, एपर्सन ने पॉप्सिकल के अधिकार न्यूयॉर्क की जो लोव कंपनी (Joe Lowe Company)  को बेच दिए। इस कदम ने पॉप्सिकल को और भी बड़े पैमाने पर लोगों तक पहुंचाने में मदद की। जो लोव कंपनी के तहत, पॉप्सिकल ब्रैंड ने ट्विन पॉप्स (एक ही छड़ी पर दो पॉप्सिकल्स) और नए फ़्लेवरों के साथ सफ़लता पाई।

आधुनिक समय में पॉप्सिकल

आज, पॉप्सिकल ब्रैंड यूनिलीवर के स्वामित्व में है। इस ने अपने मूल रूप से परे विस्तार किया है, जिसमें शुगर-फ्ऱी विकल्प, फल-आधारित किस्में, और योगर्ट-भरे पॉप्स शामिल हैं। फिर भी, इसका मूल विचार वही हैः एक छड़ी पर जमी हुई ठंडी, मीठी और एक आनंददायक ट्रीट ।

पॉप्सिकल आज भी एक सांस्कृतिक प्रतीक बना हुआ है, जो गर्मियों और बचपन की मासूमियत का प्रतिनिधित्व करता है। जबकि आज पॉप्सिकल के कई ब्रैंड और फ़्लेवर उपलब्ध हैं, यह अभी भी बचपन की यादों में गहराई से बसा हुआ है, बिना किसी प्रांत, देश या सीमा की बाध्यता के। इसकी निरंतर उपस्थिति आज भी बच्चों और वयस्कों दोनों को ख़ुश करती है। इस निरंतर स्नेह और आकर्षण का पूरा श्रेय एपर्सन के इस संयोगवश आविष्कार को जाता है।

क्या आप जानते हैं?

चेरी सबसे लोकप्रिय पॉप्सिकल फ़्लेवर है। पॉप्सिकल आईसपॉप्स पर पहेलियाँ होती हैं, जिनके उत्तर आप तभी जान सकते हैं जब तक पूरा पॉप्सिकल ख़त्म नहीं कर लेते। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, आठवीं वायु सेना टुकड़ी ने पॉप्सिकल्स को अमेरिकी जीवन के प्रतीक के रूप में अपनाया। पॉप्सिकल लिक-ए-कलर आईस पॉप्स बाहरी रंग से लेकर अंदर तक रंगीन होते हैं।

“आईस्क्रीम मैन”ने नेब्रास्का में घोड़े-गाड़ी से बच्चों को पॉप्सिकल्स बेचे। आज हर साल दो अरब पॉप्सिकल्स बेचे जाते हैं। ट्विन पॉप्सिकल्स का आविष्कार महान मंदी के दौरान हुआ था, ताकि दो बच्चे एक पॉप्सिकल को केवल एक निकल (5 सेंट) में साझा कर सकें।

निष्कर्ष:

पॉप्सिकल की सफ़र एक साधारण बच्चे की संयोगवश खोज से लेकर एक वैश्विक सनसनी बनने तक की कहानी है। फ्ऱैंक एपर्सन की जमी हुई ट्रीट ने न सिर्फ़ गर्मियों में ताज़गी का एहसास कराया, बल्कि अनगिनत मीठी यादें भी संजोई हैं। पॉप्सिकल हमें यह सिखाता है कि सबसे आनंदमय आविष्कार कभी-कभी सबसे अप्रत्याशित स्थानों से उत्पन्न होते हैं। और हां, उन 25-50 पैसे वाली पॉप्सिकल की यादें आज भी हमारे दिलों में ताज़गी से भरी हुई हैं, जो हमें 80-90 के दशक की मासूमियत और ख़ुशियों की सेर पर ले जाती हैं।

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