गिरीश भारती जी से उनकी पुरखों की बनाई ख़ास मिठाई के बारे में कुछ दिलचस्प बातें जानने को मिलीं जो आप भी सुनेंगे तो मुझे विश्वास है कि आपको यक़ीन नहीं होगा कि पेड़े का नाम पेड़ा बड़े ही हास्यास्पद तरीक़े से पड़ा जो एक इतिहास बन गया।
गिरीश बताते हैं कि मथुरा के पेड़े की कहानी 200 साल पुरानी है कि, एक दिन किसी हलवाई ने कढ़ाई चढ़ाई और उसमें दूध पकने रख दिया, अपने बेटे को उस पकते हुए दूध के पास बिठा कर कहा देखो यह दूध पक रहा है तुम यहाँ बैठो और ख़ुद किसी काम से चला गया। वह दूध पकते-पकते गाढ़ा हो गया और उसने खोये का रूप ले लिया। धीरे-धीरे कोयले की आंच में पक कर बिल्कुल लाल रंग का हो गया, जब वो महापुरुष लौट कर आये तो दूध सूख चूका था तो उसने उसे एक अलग बर्तन में निकाल कर रख दिया। अब उसने उस खोए को यूँ ही चार-पांच दिन तक छोड़ दिया, उसकी समझ में नहीं आ रहा था की इसका अब क्या किया जाये। लोग उसके पास आते और पूछते थे कि ‘‘यह ऐसे ही पड़ा है‘‘। हर कोई आकर यही पूछता क्यों ‘पड़ा’ है तब वह यही कहता क्या करूँ यह ऐसे ही ‘पड़ा’ है तो किसी ने कहा कि बूरा डाल कर खा जाओ, इस प्रकार उससे बनी मिठाई जिसका नाम ‘‘पड़ा‘‘ रख दिया गया। आज की तारीख़ में वही ‘‘पड़ा‘‘ मथुरा का ‘‘पेड़ा‘‘ के नाम से मशहूर है।
वह आगे बताते हैं कि उनके पूर्वज यह काम सन 1958 ई0 से करते चले आ रहे हैं। उनका मानना है कि पेड़े का असली स्वाद कोयले की भट्टी पर और लोहे कि कढ़ाई में पकने से ही आता है। हर काम स्वचालन से होने लगा है लेकिन उसमें कहीं न कहीं मिठाई के ओरिजिनल ऑथेंटिक स्वाद में कमी आ जाती है। पेड़े का असली स्वाद सिर्फ़ पुराने तरीक़े से पकने में ही आता है। आज के समय में लगभग हमारा सारा काम स्वचालन से होता है, लेकिन हमने आज भी पेड़े का काम स्वचालन पर नहीं किया बल्कि उसी पुरानी परंपरा से ही बनाते हैं।
इस पेड़े की ख़ास बात यह है कि सबसे पहले इसका दूध रखा हुआ नहीं होना चाहिए। दूध ठंडा करके पेस्चराईज़ कर अगर हम पेड़ा बनाते हैं तो कहीं ना कहीं उसके स्वाद में बदलाव आ जायेगा।
चार शर्तों पर पेड़े का स्वाद आधारित है, पहला तो दूध ताज़ा हो, दूसरा यह कि वह फ़ुल क्रीम मिल्क हो, तीसरी शर्त है कोयले की आंच पर धीरे-धीरे पका हो और चैथी शर्त है लोहे की कढ़ाई। आखि़र में उसमें इलाइची का टच लगा दिया जाये तो मथुरा का मशहूर पेड़ा तैयार…। इसकी एक और ख़ास बात यह है कि इसमें किसी तरह का कोई अर्टिफ़िशियल कलर नहीं मिलाया जाता है, उसकी भुनाई ही उसका कलर और स्वाद है।
मथुरा में दो तरह का पेड़ा मिलता है एक ‘‘नॉर्मल पेड़ा‘‘ और दूसरा ‘‘पक्का पेड़ा‘‘, पक्के पेड़े की शेल्फ़-लाईफ़ 1 साल की होती है। हमारे यहाँ गुजरात से जो NRIs आते हैं वह इस “पक्का पेड़ा” को ले जाते हैं और इसे पूरा साल रख कर खाते हैं क्योंकि यह ज़्यादा चलता है। फिर चाहे वह अमेरिका रहें या दुनिया के किसी भी कोने में, वह इसे लेकर जाते हैं और लम्बे समय तक रख कर खाते हैं।
इसमें कोई भी प्रिज़र्वेटिव या केमिकल्स नहीं मिलाये जाते केवल उसके दूध के अंदर जो नमी होती है उसको ख़त्म करना होता है, जो दूध को लगातार पकाने से होती है जिसकी वजह से पेड़े की शेल्फ़-लाईफ़ बढ़ जाती है। अब जो नॉर्मल पेड़ा होता है उसकी शेल्फ़-लाईफ़ जाड़ों में एक महीना और गर्मियों में 15 से 20 दिन की होती है। स्वाद दोनों ही पेड़ों का सारा साल एक जैसा ही होता है सिर्फ़ दिक़्क़त आती है बरसात के मौसम में। इसमें हमें नॉर्मल पेड़े को हवा लगाने की ज़रूरत होती है अगर हम इसे हवा ना लगाएं तो इसमें फंगस आ जाता है। बरसात का मौसम पेड़े के लिए सबसे बुरा मौसम होता है।