रंगीलो सावण आयो रे
सुरंगो सावण आयो।
बरखा की बूंदा ल्यायो रे,
हटीलो सावण आयो।
आयो आयो तीज तिंवार,
रमश्यां आंगणिये।
ऐसे ही गीत सुनाई देते हैं जैसे ही सावन आता हैं। जब गर्मी से झुलसती धरती पर बारिश की बुँदे गिरती हैं और मिट्टी की सौंधी ख़ुश्बू से पूरी धरती सुंगधित हो जाती हैं। आज इस महीने के हिस्ट्री ऑफ़ द प्रोडक्ट में हम जिस राज्य की बात करने वाले हैं उसकी बात ही अनोखी हैं। लोकगीत, नृत्य, कला और परंपरा का अनोखा संगम आपको सिर्फ़ यहीं मिलेगा। आज के हमारे व्यंजन को त्यौहार के एक प्रतिक के रूप में देखा जाता हैं, क्यूंकि अगर यह थाली में न हो तो शायद त्यौहार पूरा ही न हो।
घेवर उत्तर भारत से लेकर राजस्थान तक एक सीज़नल तथा शगुन के रूप में भेट देनेवाला व्यंजन हैं। घेवर छप्पन भोग के अंतर्गत प्रसिद्ध व्यंजन है। संस्कृत में घृतवर, पिष्टपुर, घृतपूर से जाने जाना वाला इस व्यंजन का उल्लेख 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व में बने सुश्रुत संहिता युग में हैं। 250 साल का इतिहास माने जाने वाले और कहीं पर कुछ लिखित प्रमाणित स्वरुप में न होने के वजह से इसके उत्पति को लेकर संभ्रम हैं। राजस्थान के शेख़ावती क्षेत्र से उत्पन्न हुई घेवर को बनाने में गतकाल में आधे साल का समय लगता था ऐसे पढ़ने में आया हैं। कईयों का मानना हैं की ईरान से आयात की गयी मिठाई हैं तो कोई मानते हैं की उत्तर प्रदेश की उत्पति हैं।
घेवर एक छत्ते के आकार की भारतीय मिठाई है, इसे मैदा या गेहू का आटा, और घी का उपयोग करके तैयार किया जाता है। कुछ लोग इसका स्वाद बढ़ाने के लिए इसमें थोड़ी मात्रा में बेसन मिला देते हैं। इन सामग्रियों का उपयोग करके एक बैटर बनाया जाता है और पाईपिंग घी या गर्म तेल में ऊंचाई से गिराया जाता हैं। स्थानीय मिठाई की दुकानें इसे गोल आकार देने के लिए इसकी तैयारी के दौरान एक विशेष डिस्क के आकार के धातु के सांचे का उपयोग करती हैं। भले ही सामग्री बुनियादी और आसानी से उपलब्ध है, एक अच्छा घेवर बनाने की युक्ति इसकी तैयारी तकनीक में निहित है समय सबसे महत्वपूर्ण कारक हैं। घेवर की पारंपरिक रेसिपी को समझना और इसको परफ़ेक्ट तरीक़े से बनाने के लिए काफ़ी अभ्यास, अनुभव और कौशल की ज़रूरत होती थी। इसलिए, इस मिठाई की रचना करने में काफ़ी समय और मेहनत लगती थी।
घेवर दो तरीके़ से बनता हैं। मीठा और बिना मीठा। मीठे घेवर की शेल्फ़ ़लाईफ़ छोटी होती हैं और उसे 3.7 दिनों के भीतर उपभोग करने की आवश्यक्ता होती है। बिना मीठे घेवर की शेल्फ़ लाईफ़ 20.30 दिनों की होती है। वैश्वीकरण के साथ घेवर के प्रकारों में भी परिवर्तन आया हैं। केसर, ड्रायफ्रुट और पनीर ऐसे स्वादों में घेवर मिलता हैं जिसमें सबसे लोकप्रिय है पनीर घेवर। एलएमबी स्वीट्स का दावा है कि उन्होंने इसकी तकनीक में महारत हासिल कर ली है।
सावन में ही घेवर का सेवन क्यों करना चाहिये इसके पीछे का रहस्य आयुर्वदे के ऋतुचर्या में बसा हैं। इसके दो कारण हैं, सावन में बरसात का मौसम होने के कारण वातावरण में नमी आ जाती है। बाक़ी मिठाईयाँ जहाँ वातावरण से नमी सोख लेने के कारण चिपचिपी और ख़राब हो सकती है, वहीं घेवर नमी से और स्पंजी हो जाता है और इसका स्वाद बढ़ जाता है। जितनी अच्छी बरसात और नमी होगी, घेवर भी उतना ही अच्छा बनेगा। जितनी ज़्यादा इसमें नमी आती है, घेवर उतना ही मुलायम और स्वादिष्ट हो जाता हैं। आयुर्वेद के अनुसार, सावन और भादप्रद शरीर में वात और पित्त की समस्या बढ़ सकती है। घेवर घी में बनाया जाता है, और मीठा होता है, ये वात और पित्त को शांत करता है।
राजस्थान से जयपुर, सावन, तीज और रक्षाबंधन का अनोखा नाता हैं। सावन हिंदू धर्म के अनुसार बड़ा ही पावन महीना होता हैं और उत्तरी भारत और आसपास के राज्यों में इसका विशेष महत्व हैं। रक्षाबंधन जो रक्षा, विश्वास और भाई-बहन के बीच के प्यार को दर्शाता हैं जहाँ इंद्र से लेकर महाभारत के युधिष्ठर, राजा पुरु और हुमायु तक कितनी सारी कहानियां हैं। वहीं तीज अनोखे प्रेम की गाथा हैं। अपने मनचाहे वर को पाने के लिए, शिव को पाने के लिए माता गौरी ने घोर तपस्या की और 108 जनम लिए। तीज के दिन ही उनकी उस तपस्या का फल मिला और शिव ने अपनी पत्नी के रूप में पार्वती माँ का स्वीकार किया। इसी प्रेम और आस्था को मनाने के लिए नव विवाहित, सुहागन स्त्रियाँ तीज मनाती हैं और मायके से ससुराल या ससुराल से मायके में जो सौगात के मिष्ठान भेजे जाते हैं उसमे घेवर अनिवार्य हैं। पुराने लोग बताते हैं कि बिना घेवर के ना रक्षाबंधन का शगुन पूरा माना जाता है और ना ही तीज का। यह ऐसे एक शगुन की मिठाई जो न सिर्फ़ मिठास बाटती हैं बल्कि प्यार और स्नेह को संजोके भी रखती हैं।