हमने इस बार अपनी मिठाईयों के इतिहास वाले कॉलम के लिए ‘चितले बंधू’ के MD श्री संजय चितले जी जो पुणे से हैं उनसे उनके ख़ास व्यंजन भाकरवड़ी के बारे में पूछा तो उन्होंने हमें बताया कि उनका यह प्रोडक्ट 46 वर्षों से मार्किट में है जिसे उनके पिताजी स्वर्गीय श्री राजाभाव चितले जी ने प्रारम्भ किया था।
यूँ तो भाकरवड़ी प्राचीन काल से लोकप्रिय है लगभग 400 साल पुरानी। पहले यह गुजरात और महाराष्ट्र के कुछ इलाकों में बनाई जाती थी जो एक पारम्परिक व्यंजन भी कहलाती है। उन्होंने कहा कि सन 1976 ई0 से उनका यह व्यवसाय है और चितले बंधु की भाकरवड़ी बनाने में यह तीसरी पीढ़ी है।
संजय जी कहते हैं कि “उन्होंने भाकरवड़ी में थोड़े परिवर्तन किये हैं जिसके कारण हमारे ग्राहकों द्वारा पूरी दुनिया में उसकी काफ़ी सराहना हुई है”। उन्होंने यह भी बताया कि बाज़ार में मिलने वाली भाकरवड़ी पारंपरिक स्वाद से बिलकुल अलग है। गुजरात में भी भाकरवड़ी बनती है लेकिन वहाँ के स्वाद में बहुत फ़र्क़ है।
आज से 46 साल पहले जो भाकरवड़ी बनाई थी आज भी उसका वही स्वाद और वही सामग्री का उपयोग करते हैं जो पहले था। अब फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि पहले हाथों से बनाई जाती थी लेकिन वर्तमान में सारा काम स्वचालन पर निर्भर हो गया है। इसके बनाने के तरीक़े में फ़र्क़ आ गया है। बनाने के तरीक़े के कारण उसका स्वाद और बेहतर हो गया है और क्योंकि स्वचालन के ज़रिये बनती है तो उसमें एक तरह की एकरूपता पायी जाती है।
फिर उन्होंने कहा कि, “हमने भाकरवड़ी की मशीनों के लिए 4 साल तक अनुसंधान और विकास किया है जिसके बाद हमें हॉलैंड की एक कंपनी से उसे अपने हिसाब से बनवाया है। वर्तमान में हमारे पास 3 मशीनें हैं और अगले साल तक 2 और आने वाली हैं।
संजय जी ने यह भी बताया कि हर व्यंजन की कोई एक गुप्त रेसिपी होती है , वैसे ही हमारे उत्पाद का भी एक ख़ास नुस्खा है जिसे आप एक विशिष्ट महाराष्ट्रीयन स्वाद का नाम दे सकते हैं। उन्होंने यह भी कहा, कि उनकी माँ स्वर्गीय मंगला चितले और उनकी चाची स्वर्गीय विजया चितले ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है चितले भाकरवड़ी कि रेसिपी को अंतिम रूप देने में। वह दोनों ही गुणवत्ता नियंत्रण के कार्य को फैक्ट्री में कुशलता पूर्वक देखा करती थीं। संजय जी कहते हैं, कि अगर में वह ख़ास रेसिपी बता भी दूँ तो उसका वही स्वाद फिर भी नहीं आ पायेगा क्योंकि सब का किसी भी चीज़ को बनाने का तरीक़ा एक ख़ास विधिवत होता है , जो एक दूसरे से मेल नहीं खाती जिसकी वजह से उसके स्वाद में फ़र्क़ आ ही जाता है।
मौसम को ध्यान में रखते हुए उन्होंने बताया कि मौसम परिवर्तन निश्चित रूप से एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अगर मौसम में नमी है तो यह थोड़ा नरम पड़ जाता है क्योंकि यह नमी को अपने अंदर सोख लेता है जिसकी वजह से इसके टेक्सचर में फ़र्क़ आ जाता है, उसका कुर क़ुरापन ख़त्म हो जाता है। एक और ख़ास बात है कि उसमें हरी मिर्च का इस्तेमाल ज़्यादा होता है, अगर हम गर्मी के मौसम में देखें तो मिर्ची तीखी हो जाती है और वहीं अगर बरसात का मौसम आता है तो मिर्ची फीकी हो जाती है। हमें इस बात का पूरा ख्याल रखना पड़ता है मिर्ची को ध्यान में रखते हुए कि उसकी तेज़ी में कोई तबदीली ना आये। मिर्ची में भी कई तरह की किस्में पायी जाती हैं।
संजय जी ने एक ख़ास बात बताई कि उन्होंने मिर्ची की कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का इंतज़ाम किया है जिसकी वजह से उन्हें साल के 365 दिन एक ही स्वाद की मिर्ची मिलती रहे ।