भारत की खाद्यशैली बहुत ही विशाल है और इसकी अनुभूति तब आती है जब त्यौहार आते हैं। ऋतु, शास्त्र, धर्म और परंपरा का पूरा सार व्यंजनों में आ जाता है । जिसके चलते उन व्यंजनों का स्वाद ही स्वर्गिक हो जाता है।
इस महीने का हिस्ट्री ऑफ़ प्रोडक्ट में आज हम जिस व्यंजन की बात करने वाले हैं उसके स्वरुप विश्वव्यापी है अगर ऐसा हम कहें तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। पश्चिम और दक्षिण भारत के अलावा जिस भी भारतीय ने इसका स्वाद लिया है वो इसका दीवाना हो गया है। पूर्णान्न का ही एक रूप होनेवाले इस व्यंजन का नाम है – पूरनपोली।
पुरे महाराष्ट्र में होली की पहचान होनेवाली, गुड़ी पाड़वा से लेकर गणेश चतुर्थी, अक्षय तृतीया, कुलाचार पूरनपोली के बिना अधूरा है। “होली रे होली, पुरानाची पोली, साहेबांच्या पोटात बन्दुकीची गोली” यह तो होली का एंथम सॉन्ग है जो महाराष्ट्र में बच्चे-बच्चे की ज़ुबान पर होता है। खैर, यह सिर्फ महाराष्ट्र की तटीय भूमि नहीं है जो पूरे दिल से पूरन पोली के स्वास्थ्यवर्धक स्वादों का स्वाद लेती है। इस पारंपरिक मीठे फ्लैटब्रेड में विभिन्न राज्यों में भिन्नताएं हैं और इसे अलग-अलग नामों से भी बुलाया जाता है। गुजरात में इसे वेड्मी के नाम से जाना जाता है, कोंकण क्षेत्र में इसे उबट्टी या केवल पोली कहा जाता है। दक्षिण भारत में, आंध्र प्रदेश से शुरू होकर जहां इसे होलीगे कहा जाता है, कन्नड़ में ओबट्टू, मलयालम में पायसाबोली या बोल्लि, तमिल में उप्पिट्टू और तेलंगाना में भक्सालु, पोल या पोला कहा जाता है।
पूरन पोली अपने नाम की तरह ही एक पौष्टिक व्यंजन है जो कई पोषण लाभ प्रदान करता है। इसमें फाइबर होता है जो पाचन को सहारा देता है और प्रोटीन का एक महत्वपूर्ण स्रोत है जो शरीर के लिए आवश्यक है। इसके इनग्रीडिएंट्स कोलेस्ट्रॉल को कम करने में मदद कर सकता है और इसमें जिंक, फोलेट, और कैल्शियम जैसे खनिजों और विटामिन्स भी होते हैं। इसमें तुअर दाल का उपयोग किया जा सकता है, जिससे इसका पोषण स्तर बढ़ता है। साथ ही, मैदा, गुड़, या चीनी पूरन पोली के कार्बोहाइड्रेट के प्रमुख स्रोत हैं जो ऊर्जा प्रदान करते हैं।
पूरनपोली के अगर इतिहास की बात करें तो इसकी जड़ें शालिवाहन काल (लगभग 2000 वर्ष) से चली आ रही है। अतः उत्पत्ति उससे भी बहुत पहले की हो सकती है। शालिवाहन के काल से – प्राचीन भारत के एक प्रसिद्ध हिंदू सम्राट, जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने प्रतिष्ठान से शासन किया था। लेकिन शालिवाहन को सातवाहन राजा, पुराणों में आंध्र, दक्कन में स्थित एक प्राचीन दक्षिण एशियाई राजवंश पर आधारित भी कहा जाता है। इसलिए, यदि इतिहास को एक साथ रखा जाए, तो पूरन पोली की स्वादिष्टता भारत के प्राचीन दक्षिण से लेकर तटीय क्षेत्रों तक पहुंची है। 12वीं शताब्दी में कर्नाटक के राजा सोमेश्वर तृतीय द्वारा लिखित संस्कृत विश्वकोश मनसोल्लासा में इस व्यंजन का संदर्भ मिलता है।
वहीँ पूरन पोली शब्द का प्रयोग पिछले 400 वर्षों से किया जा रहा है। उसी स्वादिष्टता को ‘मांडे’ जैसे विभिन्न नामों से जाना जाता था (13वीं शताब्दी की मराठी लिपि ज्ञानेश्वरी में इसका उल्लेख है)। कुछ अन्य लिपियाँ जैसे ‘केकावली’ जो कि 1000 वर्ष से भी अधिक पुरानी है, उसमें भी पूरन पोली जैसी स्वादिष्टता का उल्लेख है।
आज का गुड़ 1200 वर्षों से महाराष्ट्र में जाना जाता था और अन्य रूप जैसे ‘काकवी’ (तरल रूप) उससे पहले भी जाना जाता था। लगभग 2500 वर्ष पुरानी पराशर लिपि में महाराष्ट्र (अपरांता/दंडकारण्य-Name of Forest) में गन्ने की खेती और गुड़ से बने नाश्ते/खाद्य पदार्थ का उल्लेख है जिसमें फ्लैट ब्रेड भी शामिल है जिसे आज के पूरन पोली के रूप का मूल माना जा सकता है।आंध्र प्रदेश के अल्लासानी पेद्दन्ना द्वारा संकलित 14वीं शताब्दी के तेलुगु विश्वकोश मनुचरित्र में भी भक्शालु (पूरन पोली) की विधि का उल्लेख है।
पूरन पोली शब्द संस्कृत के शब्द पूरनपोलिका से बना है। संस्कृत की पूर् धातु से बना है पूरण शब्द जिसका अर्थ ऊपर तक भरना, पूरा करना, आदि है। चूंकि ऊपर तक भरा होना ही सम्पूर्ण होना है सो पूरण में संतुष्टिकारक भाव भी हैं। संस्कृत में रोटी के लिए पोळी (पोलिका) शब्द है। भाव हुआ भरवां रोटी। पोळी शब्द बना है पल् धातु से जिसमें विस्तार, फैलाव, संरक्षण का भाव निहित है इस प्ररकार पोळी का अर्थ हुआ जिसे फैलाया गया हो। बेलने के प्रक्रिया से रोटी विस्तार ही पाती है।
हिन्दी भाषी इस स्वादिष्ट व्यंजन को पूरन पोली कहते हैं क्योंकि मराठी के ळ व्यंजन का उच्चारण हिन्दी में नहीं होता है तो इसकी निकटतम ध्वनि “ल” से काम चलाया जाता है।
तो ऐसा यह एक मराठी पकवान पुरे इंडिया में वर्ल्ड फेमस है। यह भले भी मजाकिया लग रहा हो पर पूरी तरह से है सत्यवचन। तो इस पकवान का आंनद आप भी जरूर लीजिये ।