हम भारतीय नागरिक मिठाई, नमकीन, चाट और स्ट्रीट-फूड के शौकीन हैं। जब बात इन व्यंजनों की आती है तो कैलोरीज़ या परहेज़ जैसे शब्द हम सुन्ना पसंद नहीं करते। छोटा पैकेट और बड़ा धमाका इस श्रेणी में आनेवाली, सब उम्र के लोगों को भानेवाली स्वादिष्ट कचैरी पर आज का यह मुख्य लेख है। कचैरी स्नैक आपको भारत के हर राज्य में भिन्न भिन्न मसालों से बनी, कई रूप और आकर में मिलती है। जिसके अंदर की भराई अलग-अलग मसालों, सब्जी तथा नॉन-वेज तक की होती है। कचौरी मीठी भी बनती हैं। अगर कचैरी की बात करें, तो सिर्फ़ यह स्नैक अकेला विक्रेता को मासिक हज़ारों से लाखों की कमाई करवा सकता है और बेशक कराता भी है।
तो चलिए चलते हैं कचौरी के सफ़र पर जिसमें आप जानेंगे उसके उगम के इतिहास से लेकर हमारे भारत के विविध राज्य के नमकीन जगत के विख्यात कचैरी उत्पादकों के उत्तर, जब हमने उनसे प्रश्न किया कि ष्आपकी बनाई कचैरी में क्या ख़ास है ?ष्छठी सदी में प्राचीन चिकित्सक सुश्रुत जी के द्वारा लिखे गए सुश्रुत संहिता में एक नुस्ख़े के क़रीब-क़रीब लगने वाली कचौरी की पाक विधि है। पुराने ग्रंथो के विचार के आधार पर तो सातवीं शताब्दी के जैन पाठ में भी कचरी नाम से भी यह व्यंजन नुस्ख़े के रूप में वर्णित है। मध्यमयुगीन रसोई किताब सुपाशास्त्र में भी कचैरी से मिलते-झुलते व्यंजनों का उल्लेख है। जैन कवि बनारसी दास कि आत्मकथा अर्धकथानक जो उन्होंने 1913 में लिखी थी, उसमें उन्होंने सात महीने तक प्रतिदिन इंदौर से एक सेर कचौरी ख़रीद थी जिसकी वजह से उनके ऊपर 20 रुपये का कर्ज़ा था। हालाँकि कुछ लिखित और सिद्ध नहीं है, पर यह भी मान्यता है कि कचौरी मारवाड़ कि खोज है जिसे मारवाड़ी समुह के द्वारा बनाया गया था। शुरुआती दौर में मुख्य व्यापार मार्ग मारवाड़ से होकर गुजरते थे। मारवाड़ियों ने इस क्षेत्र पर शासन किया और सर्वोत्तम उत्पादन तक उनकी पहुंच थी। तो इसी तरह उन्होंने कचौरी का निर्माण किया।कचौरी के दो प्रकार हैं। नमकीन क्षेत्र में वो सुखी कचौरी या मिनी कचैरी के नाम से जानी जाती है। सूखी कचौरी आकर में छोटी होती है और इसे मैदा, तेल, नमक और अंदर का मिश्रण सूखा धनिया, काली मिर्च, अमचूर पाउडर, लाल मिर्च, हल्दी, तिल और ख़शख़श का होता है। मैदे से बनी इसकी बाहरी परत कुरकुरी और अंदर का मिश्रण चटपटा, और खट्टा-मीठा होता है। स्वाद, प्रांत, हवामान (Climate) के अनुसार इसके अंदर का भराई मसाला (स्टफ़िंग) आप बदल सकते हैं। इसकी शेल्फ़ लाईफ़ बनाने की तरीक़े के नुसार 15 दिने से लेकर 3 महीने तक की हो सकती है। चाट में खानेवाली कचैरी आकर में बड़ी होती है और अंदर की भराई प्रांत के हिसाब के अलग होती है जिसे गर्मागरम, खट्टी-मीठी चटनी, दही, सेव के साथ तुरंत खाई जाती है।
महाराष्ट्र में स्थित मुंबईवासी भारत के हर राज्य, हर प्रांत, हर जाती के लोगों का निवास बन चुका है। अपनी रोज़ी-रोटी की तलाश में आये लोगों ने यहाँ आकर मुंबई को अपना बना लिया। मुंबई में बोरीवली स्थान के विविधम स्वीट्स के जयेश भाई नंदू से जब हमने उनकी सूखी कचौरी की ख़ासियत पूछी तो उन्होंने कहा की उनकी बनाई कचौरी विरासत में मिली, सर्वोच्च स्वाद और गुणवत्ता का मिश्रण है। मूंग दाल और विशिष्ट मसालों से बनी, कुरकुरी परत से भरपूर उनकी कचौरी उनके सबसे विक्रिय होने वाले उत्पादनों में से एक है, जो न सिर्फ़ भारत बल्कि बाहर के देशों में भी निर्यात की जाती है।
ऐसे तो सूखे नाश्ते और चाट में कचौरी सब का पसंदीदा स्नैक है और गुजरात नमकीन और स्नैक्स का सब से बड़ा हब भी माना जाता है, इसी वजह से वहां कचौरी की खपत ज़्यादा है।
गुजरात का ज़िक्र हो और जामनगर की बात न करें ऐसा हो नहीं सकता !!! जब हमने श्रीजी पवन कचौरी के हर्षिल जी से उनकी बनाई कचौरी की ख़ासियत पूछी तो उनका उत्तर था की श्रीजी पवन कचौरी एक विशेष प्रकार की कचौरी है जो 34 प्रकार के प्रामाणिक भारतीय मसालों, काजू, बादाम, केसर और क्रैनबेरी से भरी होती है। इस कचैरी का बेस मैदे से नहीं पर गेहूँ के आटे से बनाया जाता है और भरावन को सूखा रखा जाता है। इससे कचौरी जल्दी तली जाती है और कुरकुरी रहती है। 11-12 तरह की अनूठी फ़्लेवर से बनने वाली उनकी कचौरियाँ बिना किसी आर्टिफ़िशियल फ़्लेवर्स की होती हैं। आज भी श्रीजी पवन अपनी महिला कारीगर और दूसरे कर्मचारी जो शुरू से उनके साथ जुड़े हुए थे, वह आज भी उनके साथ हैं।
जामनगर से ही दूसरे प्रसिद्ध जैन फ़रसाण मार्ट के राजेश पधीयार से जब पूछा तो उन्होंने कहा उनकी कचौरी की विशेषता है उनका अनुभव और जामनगर के लोगों का प्यार!! इसी वजह से पिछले 55 साल से जो स्वाद उनके पिताजी द्वारा कचौरी में था वह अभी भी क़ायम है। उनकी कचैरी की ख़ासियत है कि वो स्वादिष्ट होने के साथ स्वच्छता का भी ध्यान रखते हैं और यह कचौरी पारंपरिक तरीक़े से बनायी जाती हैं, जिस में हवामान का पूरा ध्यान रखा जाता है, और इसी की वजह से शेल्फ़ लाईफ में 5 महीने का इज़ाफा हुआ है। आज की बढ़ती मांग को देखकर आधुनिक तकनीक का उपयोग किया जा रहा है।
गुजरात से ही चाट-जगत से गर्मागरम मूंग दाल कचौरी में प्रसिद्ध श्री कष्ण स्वीट्स है। श्री कष्ण स्वीट्स की चैथी पीढ़ी के तरंग देसाई जी ने बताया कि अन्य सामग्री के साथ कचौरी में पड़ने वाले उनके ख़ास मसाले उनकी कचौरी को विशेष बनाते हैं। उच्चतम तेल के तापमान का ध्यान रखते हुए उसमें तली हुई ज़ायकेदार कचौरियाँ दो तरह की चटनी के साथ सर्व करते हैं। गुजरात की मौसमी सर्दियों में एक विशेष प्रकार की कचौरी हर घर में बनाई जाती है जिसे कहते हैं लीलवा नी कचौरी। गुजराती भाषा में ताज़ी तुवर की फली या हरी अरहर को लीलवा कहा जाता है।
राजस्थान के कोटा शहर से कमल पाठक जी जो जोधपुर स्वीट्स से है, उन्होंने सूचित किया कि, कोटा में प्याज़ और दाल कचौरी का ख़ूब चलन है। बरसों से कोटावासी दाल कचौरी को बेहद पसंद करते हैं। दूसरे शहर और राज्यों की तुलना में कोटा की दाल कचौरी का स्वाद थोड़ा अलग और हटकर है। सूखी कचैरी भी बनाते हैं पर उनके अनोखे मसाले और परत के चलते उनकी शेल्फ़ लाईफ़ सिर्फ़ 15 दिन की है। कचौरी के साथ एक चटपटी चटनी खाई जाती है वो कोटा में पूर्णतः गुड़ और भिन्न मसालों से बनती है जो अन्य राज्य में नहीं बनती।
जोधपुर में एक और अनोखी कचैरी है जिसका नाम है मावा कचौरी। बाक़ी सभी वैराईटी से यह थोड़ी अलग है, क्योंकि यह स्वाद में मीठी होती है। चाँदी के वर्क़ और कटे हुए सूखे मेवों के साथ टॉपिंग, कचैरी के इस संस्करण में मावा, सूजी, ईलायची, काजू और मेवे की भरमार है। दिलचस्प बात यह है कि इन्हें जर्नी केक के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि मावा कचौरी की शेल्फ़ लाईफ़ ज़्यादा होती है।
जोधपुर से ही एक और कचौरी की उत्पति हुई है जो मोगर कचौरी के नाम से जानी जाती है। इस क़िस्म की कचौरी में भीगी हुई मूंग दाल, ख़ास मसाले और बहुत सारा अमचूर पाउडर मिलाया जाता है। यह कचौरी, मसालेदार आलू सब्ज़ी के साथ परोसी जाती है, जिसे देश के कई हिस्सों में नाश्ते के रूप में भी पसंद किया जाता है।
राजस्थान के बीकानेर की मूल खोज व्यंजन में राज कचौरी जिसे किंग ऑफ़ कचौरी के नाम से भी जाना जाता है इसका जिक्ऱ तो बनता ही है। सुपर गोलगप्पे जैसी दिखने वाली यह कचौरी भरपूर माल-मसालों, आलू की सब्ज़ी, चटनी, बारीक सेव, फ्ऱेश अनार दाने, मीठे दही और हरे धनिये की चटनी की टॉपिंग के साथ कई जगह के स्ट्रीट-स्नैक्स, होटल्स, ईटिंग जॉइंट्स पर सब से ज़्यादा बिकने वाला शाम का स्नैक है।
लुधिआना से हमने ल्यालपुर स्वीट्स के कपिल खरबंदा जी से बात की। उन्होंने कहा कि वो सूखी और चाट वाली दोनों कचौरी बनाते हैं। अन्य कचौरी की तरह ही दाल, मसाले, ड्रायफ्रुइट्स की भराई होती है कचैरी में। पर उनकी कचौरी इस वजह से ख़ास है क्योेंकि उनके प्रोडक्शन एरिया में स्वच्छता का ख़ास ध्यान रखा जाता है। उनके यहाँ कचौरी के साथ मिलने वाली चटनी भी सैशे में देते हैं। स्वच्छता के संबंधित ज़्यादा जागरूक ग्राहकों की पसंदीदा जगह है ल्यालपुर स्वीट्स !
दिल्ली प्रांत से नागोरी कचौरी भी बड़ी प्रसिद्ध है। दिलचस्प बात यह है कि कचौरी के इस संस्करण में कोई स्टफ़िंग नहीं होती, बल्कि आटे में फ़्लेवर मिलाया जाता है। यह ख़स्ता और नमकीन संस्करण कुछ हद तक नवरात्रि के त्यौहार के दौरान बनाई जाने वाली कुरकुरी पूरियों के समान है। इसे हलवे के साथ परोसा जाता है।
आगरा से दाऊजी मिष्ठान के जय अग्रवाल जी ने कहा कि, आगरा के लोग कचौरी शुद्ध घी में तली हुई ही पसंद करते हैं। अन्य शहर/राज्यों में रिफ़ाइंड तेल, मूंगफली तेल की तली हुई कचौरी होती है। अंदर की भराई उड़द दाल के साथ भिन्न मसालों को भून कर की जाती है। जब इस कचौरी को सर्व करते हैं तो उसके साथ सूखे आलू और पनीर की ग्रेटिंग होती है और साथ में हरी और मीठी चटनी होती है। दाऊजी मिष्ठान की सूखी कचौरी भी ख़ास होती है क्योंकि उसकी भराई डायफ्रुट, नमकीन के मिक्सचर, किशमिश, काजू और बादाम की होती है जिस वजह से इसका स्वाद भी चटपटा होता है।
उत्तर प्रदेश के प्रामुख्यता बनारस से ही और दो प्रकार की कचौरियाँ पाई जाती हैं, वो है गोल कचौरी और बनारसी कचौरी । इन दोनों कचौरियों को पर्याप्त मात्रा में सब्जी के साथ परोसा जाता है, चाहे वह आलू हो या कद्दू हो या बैंगन या कोई भी सब्जी हो। गोल कचौरी को सब्जी और चटनी के साथ परोसने से पहले थोड़ा कुचला जाता है। बनारसी कचौरी नरम होती है और इस में सब्जी का स्वाद बढ़ाने के लिए स्टफिंग डाली जाती है।
बिहार से बीकानेर एलाइट के विवेक मित्तल जी का जवाब था कि उनके यहाँ पसंद की जाने वाली कचैरी में ख़स्ता कचौरी, प्याज़ कचैड़ी और कॉकटेल दाल कचैड़ी हैं (बिहार में कचैरी को कचैड़ी कहते हैं)। उनकी ख़ासियत है की वो कस्टमाइज़्ड याने ऑर्डर के अनुसार स्पेशल हींग कचैड़ी, स्पेशल सत्तू कचैड़ी, मूंग दाल कचैड़ी भी बनाते हैं। मांग के अनुसार ही अंदर के भराई मसालें और सर्विंग में अंतर होता है।
कोलकाता से धीमान दास जी, K.C.DAS PVT.LTD. ने बताया की उनके यहाँ 3-4 प्रकार की कचौरियाँ बनाई जाती हैं। उनमें से एक है ख़स्ता कचौरी, जिसमें चने के दाल की स्टफ़िंग होती है। दूसरी कचौरी जो उनके यहाँ ज़्यादातर पसंद की जाती है वह हैं हरे मटर की स्टफिंग वाली कचौरी। उड़द दाल के स्टफ़िंग से बनी हुई कचौरी को कोलकाता में राजा वल्लभी के नाम से जाना जाता है। इन सारी कचौरियों को उनके यहाँ आलू की सब्जी ग्रेवीवाली या फिर चने की ग्रेवी के साथ परोसा जाता है। धीमान दा ने हाल में ही मोचा कचौरी (केले के पत्ते को कोलकाता में मोचा कहते हैं) का निर्माण किया है और वह तेजी से लोकप्रिय हो रही है।
आंध्र प्रदेश के मशहूर महेंद्र मिठाईवाला के ओनर हेमंत गहलोत जी ने बताया की उनके यहाँ दाल, मटर और प्याज़ यह तीन प्रकार की कचौरियाँ को पसंद किया जाता है। उन के यहाँ की कचैरी प्रामाणिक और सरल तरीक़े से बनाई जाती है, सादेपन की सादगी यही ख़ासियत उनकी कचौरियों को ख़ास बनाती हैं।
अपने आप में भिन्न रूप लिए हुए कचौरी इसी वजह से ख़ास हो जाती है जिसे आप किसी भी रूप में ढाल सकें, फिर भी स्वाद में वो इतनी ही श्रेष्ठ रहेंगी। इसी वजह से कम बजटवाली कचैरी का उत्पादन भी आपको और आपके व्यवसाय को एक नया आयाम दे सकता है, ज़रूरत है तो बस थोड़ी सी काल्पनिकता की।
भारत की खाद्य संस्कृति विभिन्न व्यंजनों, स्वाद और अद्वितीय इतिहास से बनी है। कैलोरीज, स्वास्थ्य के प्रति जागरूक, विदेशी खान-पान के आकर्षण के कारण आज लोग हमारी संस्कृति की मर्यादा को भूलते जा रहे हैं। यह लेख उसी गरिमा को याद रखने और भारतीय व्यंजन के प्रति हमारे जुनून को उजागर करने का एक अच्छा तरीक़ा है। हमारी स्वाद वरीयताओं के कारण हमारा मिठाई और नमकीन उद्योग एक विशाल उद्योग में विकसित हो गया है। तो हमारे इसी चटोरेपन के चलते आपको और ललायित करने के लिए मिठाई और नमकीन टाईम्स अपने आगामी आने वाले प्रती में इसी तरह आपको व्यंजनों के भारत सफ़र पर ले चलेगा। तब तक के लिए हमारे लिखे व्यंजनों का लुफ़्त लेते रहें, खाते रहें, स्वस्थ रहें।